बाज की उड़ान

बाज की उड़ान
एक बार की बात है कि एक बाज का अंडा मुर्गी के अण्डों के बीच आ गया. कुछ दिनों बाद उन अण्डों में से चूजे निकले, बाज का बच्चा भी उनमे से एक था.वो उन्ही के बीच बड़ा होने लगा. वो वही करता जो बाकी चूजे करते, मिटटी में इधर-उधर खेलता, दाना चुगता और दिन भर उन्हीकी तरह चूँ-चूँ करता. बाकी चूजों की तरह वो भी बस थोडा सा ही ऊपर उड़ पाता , और पंख फड़-फडाते हुए नीचे आ जाता . फिर एक दिन उसने एक बाज को खुले आकाश में उड़ते हुए देखा, बाज बड़े शान से बेधड़क उड़ रहा था. तब उसने बाकी चूजों से पूछा, कि-
” इतनी उचाई पर उड़ने वाला वो शानदार पक्षी कौन है?”
तब चूजों ने कहा-” अरे वो बाज है, पक्षियों का राजा, वो बहुत ही ताकतवर और विशाल है , लेकिन तुम उसकी तरह नहीं उड़ सकते क्योंकि तुम तो एक चूजे हो!”
बाज के बच्चे ने इसे सच मान लिया और कभी वैसा बनने की कोशिश नहीं की. वो ज़िन्दगी भर चूजों की तरह रहा, और एक दिन बिना अपनी असली ताकत पहचाने ही मर गया.
दोस्तों , हममें से बहुत से लोग उस बाज की तरह ही अपना असली potential जाने बिना एक second-class ज़िन्दगी जीते रहते हैं, हमारे आस-पास की mediocrity हमें भी mediocre बना देती है.हम में ये भूल जाते हैं कि हम आपार संभावनाओं से पूर्ण एक प्राणी हैं. हमारे लिए इस जग में कुछ भी असंभव नहीं है,पर फिर भी बस एक औसत जीवन जी के हम इतने बड़े मौके को गँवा देते हैं.
आप चूजों की तरह मत बनिए , अपने आप पर ,अपनी काबिलियत पर भरोसा कीजिए. आप चाहे जहाँ हों, जिस परिवेश में हों, अपनी क्षमताओं को पहचानिए और आकाश की ऊँचाइयों पर उड़ कर दिखाइए क्योंकि यही आपकी वास्तविकता है.

जीवनचक्र

एक बार एक राजा ने विद्वान ज्योतिषियों और ज्योतिष प्रेमियों की सभा बुलाकर प्रश्न किया कि "मेरी जन्म पत्रिका के अनुसार मेरा राजा बनने का योग था मैं राजा बना , किन्तु उसी घड़ी मुहूर्त में अनेक जातकों ने जन्म लिया होगा जो राजा नहीं बन सके क्यों ?
इसका क्या कारण है ? राजा के इस प्रश्न से सब निरुत्तर होगये क्या जबाब दें कि एक ही घड़ी मुहूर्त में जन्म लेने पर भी
सबके भाग्य अलग अलग क्यों हैं?
सभी विद्वजन इस प्रश्न का उत्तर सोच ही रहे थे कि, अचानक एक वृद्ध खड़े हुये और बोले, "महाराज की जय हो ! आपके प्रश्न का उत्तर भला कौन दे सकता है , आप यहाँ से कुछ दूर घने जंगल में यदि जाएँ तो वहां पर आपको एक महात्मा मिलेंगे उनसे आपको उत्तर मिल सकता ह राजा की जिज्ञासा बढ़ी।
घोर जंगल में जाकर देखा कि एक महात्मा आग के ढेर के पास बैठ कर अंगार (गरम कोयला ) खाने में व्यस्त हैं।
सहमे हुए राजा ने महात्मा से जैसे ही प्रश्न पूछा महात्मा ने क्रोधित होकर कहा
"तेरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए मेरे पास समय नहीं है मैं भूख से पीड़ित हूँ ।तेरे प्रश्न का उत्तर यहां से कुछ आगे पहाड़ियों के बीच एक और महात्मा हैं,वे दे सकते हैं।"
राजा की जिज्ञासा और बढ़ गयी, पुनः अंधकार और पहाड़ी मार्ग पार कर बड़ी कठिनाइयों से राजा दूसरे महात्मा के पास पहुंचा किन्तु यह क्या
महात्मा को देखकर राजा हक्का बक्का रह गया, दृश्य ही कुछ ऐसा था महात्मा अपना ही माँस चिमटे से नोच नोच कर खा रहे थे।
राजा को देखते ही महात्मा ने भी डांटते हुए कहा " मैं भूख से बेचैन हूँ मेरे पास इतना समय नहीं है , आगे जाओ पहाड़ियों के उस पार एक आदिवासी गाँव में एक बालक जन्म लेने वाला है ,जो कुछ ही देर तक जिन्दा रहेगा सूर्योदय से पूर्व वहाँ पहुँचो वह बालक तेरे प्रश्न का उत्तर दे सकता है।"
सुन कर राजा बड़ा बेचैन हुआ बड़ी अजब पहेली बन गया मेरा प्रश्न, उत्सुकता प्रबल थी।
कुछ भी हो यहाँ तक पहुँच चुका हूँ वहाँ भी जाकर देखता हूँ क्या होता है?
राजा पुनः कठिन मार्ग पार कर किसी तरह प्रातः होने तक उस गाँव में पहुंचा, गाँव में पता किया और उस दंपति के घर पहुंचकर सारी बात कही और शीघ्रता से बच्चा लाने को कहा* जैसे ही बच्चा हुआ दम्पत्ति ने नाल सहित बालक राजा के सम्मुख उपस्थित किया राजा को देखते ही बालक ने हँसते हुए कहा, राजन् ! मेरे पास भी समय नहीं है ,किन्तु अपना उत्तर सुनो लो तुम,मैं और दोनों महात्मा सात जन्म पहले चारों भाई व राजकुमार थे। एकबार शिकार खेलते खेलते हम जंगल में भटक गए। तीन दिन तक भूखे प्यासे भटकते रहे ।
अचानक हम चारों भाइयों को आटे की एक पोटली मिली जैसे तैसे हमने चार बाटी सेकीं और अपनी अपनी बाटी लेकर खाने बैठे ही थे कि भूख प्यास से तड़पते हुए एक महात्मा आ गये । अंगार खाने वाले भइया से उन्होंने कहा -
बेटा मैं दस दिन से भूखा हूँ अपनी बाटी में से मुझे भी कुछ दे दो, मुझ पर दया करो जिससे मेरा भी जीवन बच जाए, इस घोर जंगल से पार निकलने की मुझमें भी कुछ सामर्थ्य आ जायेगी " इतना सुनते ही भइया गुस्से से भड़क उठे और बोले "तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या आग खाऊंगा ? चलो भागो यहां से।
वे महात्मा जी फिर मांस खाने वाले भइया के निकट आये उनसे भी अपनी बात कही किन्तु उन भइया ने भी महात्मा से गुस्से में आकर कहा कि "बड़ी मुश्किल से प्राप्त ये बाटी तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या अपना मांस नोचकर खाऊंगा ?"
भूख से लाचार वे महात्मा मेरे पास भी आये , मुझे से भी बाटी मांगी... तथा दया करने को कहा किन्तु मैंने भी भूख में धैर्य खोकर कह दिया कि " चलो आगे बढ़ो मैं क्या भूखा मरुँ ...?"
बालक बोला "अंतिम आशा लिये वो महात्मा हे राजन ! आपके पास आये, आपसे भी दया की याचना की।
सुनते ही आपने उनकी दशा पर दया करते हुये ख़ुशी से अपनी बाटी में से आधी बाटी आदर सहित उन महात्मा को दे दी।
बाटी पाकर महात्मा बड़े खुश हुए और जाते हुए बोले "तुम्हारा भविष्य तुम्हारे कर्म और व्यवहार से फलेगा।
बालक ने कहा "इस प्रकार हे राजन ! उस घटना के आधार पर हम अपना भोग, भोग रहे हैं ,धरती पर एक समय में अनेकों फूल खिलते हैं, किन्तु सबके फल रूप, गुण, आकार-प्रकार, स्वाद में भिन्न होते हैं।
इतना कहकर वह बालक मर गया।
राजा अपने महल में पहुंचा और सोचने लगा......
एक ही मुहूर्त में अनेकों जातक जन्मते हैं किन्तु सब अपना किया, दिया, लिया ही पाते हैं।
जैसे कर्म करेंगें वैसे ही योग बनेंगे।यही जीवनचक्र है।
देखा आपने! चार राजकुमार भाई सबका भाग्य अलग अलग।

समस्या

एक राजा ने बहुत ही सुंदर ''महल'' बनावाया और महल के मुख्य द्वार पर एक ''गणित का सूत्र'' लिखवाया और एक घोषणा की कि इस सूत्र से यह 'द्वार खुल जाएगा और जो भी इस ''सूत्र'' को ''हल'' कर के ''द्वार'' खोलेगा में उसे अपना उत्तराधीकारी घोषित कर दूंगा।
राज्य के बड़े बड़े गणितज्ञ आये और सूत्र देखकर लोट गए, किसी को कुछ समझ नहीं आया। आख़री दिन आ चुका था उस दिन 3 लोग आये और कहने लगे हम इस सूत्र को हल कर देंगे। उसमे 2 तो दूसरे राज्य के बड़े गणितज्ञ अपने साथ बहुत से पुराने गणित के सूत्रो की पुस्तकों सहित आये। लेकिन एक व्यक्ति जो ''साधक'' की तरह नजर आ रहा था सीधा साधा कुछ भी साथ नहीं लाया था। उसने कहा मै यहां बैठा हूँ पहले इन्हें मौक़ा दिया जाए। दोनों गहराई से सूत्र हल करने में लग गए लेकिन द्वार नहीं खोल पाये और अपनी हार मान ली। अंत में उस साधक को बुलाया गया और कहा कि आपका सूत्र हल करिये समय शुरू हो चुका है। साधक ने आँख खोली और सहज मुस्कान के साथ 'द्वार' की ओर गया। साधक ने धीरे से द्वार को धकेला और यह क्या? द्वार खुल गया, राजा ने साधक से पूछा - आप ने ऐसा क्या किया? साधक ने बताया जब में 'ध्यान' में बैठा तो सबसे पहले अंतर्मन से आवाज आई, कि पहले ये जाँच तो कर ले कि सूत्र है भी या नहीं। इसके बाद इसे हल ''करने की सोचना'' और मैंने वही किया! कई बार जिंदगी में कोई ''समस्या'' होती ही नहीं और हम ''विचारो'' में उसे बड़ा बना लेते हैं।

सबक

बहू घर में ब्याह कर आई तो सब ऒर हंसी ख़ुशी का माहौल बन गया,धीरे धीरे सब मेहमान विदा हो गए, अब घर में बची तीन सगी ननदे ।एक एक कर उनकी भी विदाई होनी थी तभी छोटी बोली,--अम्मा ,दिखलाओ तो बहू क्या क्या कपड़ा लत्ता लाई है,दोनों बड़ी बहिनों ने भी अनुमोदन किया ।हाँ,हाँ, क्यों नही, कहते हुए अम्मा ने कमर से चाभी निकाली,बहू की अटैची खोली जा चुकी थी ,एक से बढ़कर एक सुंदर ,मंहगी साड्डी सामने बिखरी थी ,तीनो ननदो की आँखे चमक उठी ,आँखों ही आँखों में इशारे हुए,माँ की सहमति का इशारा समझते हुए तीनो ने अपनी अपनी पसन्द की साडी का चुनाव कर लिया, उन पर हाथ फिराते हुए बड़ी बोल उठी--अम्मा यह साडी तो मै लूंगी,छोटे भाई का ब्याह हुआ है,इतना हक तो बनता है,शेष दोनों बहिने बोल उठी --हाँ अम्मा और क्या ,जीजी सही तो कह रही है।अम्मा ने मुस्कुराते हुए सामने बैठी बहू से पूछा,--क्यों बहू ,तुम्हे कोई एतराज तो नहीं है?बहू सकपकाते हुए बोली--नहीँ,अम्माजी जैसा आप ठीक समझे,साथ ही उसकी आँखों के आगे मोती झिलमिलाने लगे,उसमे से एक साडी उसके पापा ने जन्मदिन पर उपहार में दी थी,जो अब इस दुनिया में भी नही है,दूसरी साडी उसकी सहेली कितने प्यार से पूरा बाजार छानकर लाई थी और तीसरी साडी उसने अपनी पहली कमाई से खरीदी थी, पर वह विवश थी ,नई बहू थी,मुंह नही खोल सकती थी ,तीनो ननदे ख़ुशी ख़ुशी साडी लेकर चलती बनी।जैसे ही छोटी नन्द अपने घर पहुंची, फोन आया---अम्मा पता है ,जो साड़ी तुमने इतने प्यार से दी ,वह मेरी नन्द को पसन्द आ गई है,वह मांग रही है ,बहुत गुस्सा आ रहा है ,अब मै क्या करूँ ? तभी बहू ने अम्मा जी का तमतमाया स्वर सुना--कोई ज़रूरत नही है,साफ मना करना सीखो,कह दो अम्मा ने बड़े प्यार से दी है,समझी कुछ ,दे मत देना, इतनी मंहगी और अच्छी साडी है। बहू ने भी भविष्य के लिए यह सबक अच्छी तरह से याद कर लियाl 

सम्मान की प्रतिष्ठा l

एक नौजवान मार्शल आर्टिस्ट को सालों की मेहनत के बाद ब्लैक बेल्ट
देने के लिए चयनित किया गया . ये बेल्ट एक समारोह में मास्टर
सेन्सेइ द्वारा दी जानी थी .समारोह वाले दिन नवयुवक मास्टर सेन्सेइ
के समक्ष ब्लैक – बेल्ट प्राप्त करने पहुंचा .
“ बेल्ट देने से पहले , तुम्हे एक और परीक्षा देनी होगी ,” सेन्सेइ
बोले .
“मैं तैयार हूँ ,” नवयुवक बोला ; उसे लगा की शायद उसे किसी से
मुकाबला करना होगा .
लेकिन सेंसेई के दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा था . उन्होंने पूछा ,
“ तुम्हे इस प्रश्न का उत्तर देना होगा : ब्लैक बेल्ट हांसिल करने
का असली मतलब क्या है ?”
“ मेरी यात्रा का अंत ,” नवयुवक बोला . “मेरे कठोर परिश्रम
का इनाम .”
सेंसेई इस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुए और बोले ; “ तुम अभी ब्लैक बेल्ट
पाने के काबिल नहीं बने हो . एक साल बाद आना .”
एक साल बाद नवयुवक एक बार फिर ब्लैक बेल्ट लेने के लिए पहुंचा ,
सेंसेई ने दुबारा वही प्रश्न किया , “ब्लैक बेल्ट हांसिल करने
का असली मतलब क्या है ?”
“ यह इस कला में सबसे बड़ी उपलब्धि पाने का प्रतीक है ,” नवयुवक
बोला
सेंसेई संतुष्ट नहीं हुए और कुछ देर इंतज़ार किया की वो कुछ और
भी बोले पर युवक शांत ही रहा .
“ तुम अभी भी बेल्ट पाने के हकदार नहीं बन पाए हो , जाओ अगले
साल फिर आना .” , और ऐसा कहते हुए सेंसेई ने युवक को वापस भेज
दिया .
एक साल बाद फिर वह युवक सेंसेई के सामने क्ल्हादा था . सेंसेई ने
पुनः वही प्रश्न किया ,
“ब्लैक बेल्ट हांसिल करने का असली मतलब क्या है ?”
“ ब्लैक बेल्ट आरम्भ है एक कभी न ख़त्म होने वाली यात्रा का जिसमे
अनुशाशन है ,कठोर परिश्रम है , और हमेशा सर्वोत्तम मापदंड छूने
की लालसा है .” नवयुवक ने पूरे आत्म -विश्वास के साथ उत्तर
दिया .
“सेंसेई उत्तर सुन कर प्रसन्न हुए और बोले , “ बिलकुल सही . अब
तुम ब्लैक -बेल्ट पाने के लायक बने हो . लो इस सम्मान को ग्रहण
करो और अपने कार्य में लग जाओ .”,
कई बार किसी बड़ी उपलब्धि को हांसिल करने के बाद हम थोड़े
निश्चिंत हो जाते हैं , शायद यही वजह है की शिखर पर पहुंचना शिखर
पर बने रहने से आसान होता है.
हमें चाहिए की हम अपनी उपलब्धि के मुताबिक और भी कड़ी मेहनत करें
और अपने सम्मान की प्रतिष्ठा बनाये रखें.।। 

सकारात्मक सोच l

एक राजा था जिसकी केवल एक टाँग और एक आँख थी।उस राज्य में सभी लोग खुशहाल थे क्यूंकि राजा बहुत बुद्धिमान और प्रतापी था।एक बार राजा के विचार आया कि क्यों खुद की एक तस्वीर बनवायी जाये।फिर क्या था, देश विदेशों से चित्रकारों को बुलवाया गया और एक से एक बड़े चित्रकार राजा के दरबार में आये।राजा ने उन सभी से हाथ जोड़ कर आग्रह किया कि वो उसकी एक बहुत सुन्दर तस्वीर बनायें जो राजमहल में लगायी जाएगी।
सारे चित्रकार सोचने लगे कि राजा तो पहले से ही विकलांग है, फिर उसकी तस्वीर को बहुत सुन्दर कैसे बनाया जा सकता है ?ये तो संभव ही नहीं है और अगरतस्वीर सुन्दर नहीं बनी तो राजा गुस्सा होकर दंड देगा।यही सोचकर सारे चित्रकारों ने राजा की तस्वीर बनाने से मना कर दिया।
तभी पीछे से एक चित्रकार ने अपना हाथ खड़ा किया और बोला कि मैं आपकी बहुत सुन्दर तस्वीर बनाऊँगा जो आपको जरूर पसंद आएगी।फिर चित्रकार जल्दी से राजा की आज्ञा लेकर तस्वीर बनाने में जुट गया।काफी देर बाद उसने एक तस्वीर तैयार की जिसे देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और सारे चित्रकारों ने अपने दातों तले उंगली दबा ली।
उस चित्रकार ने एक ऐसी तस्वीर बनायीं जिसमें राजा एक टाँग को मोड़कर जमीन पे बैठा है और एक आँख बंद करके अपने शिकार पे निशाना लगा रहा है।राजा ये देखकर बहुत प्रसन्न हुआ कि उस चित्रकार ने राजा की कमजोरियों को छिपाकर कितनी चतुराई से एक सुन्दर तस्वीर बनाई है।राजा ने उसे खूब इनाम एवं धन दौलत दी।
तो क्यों ना हम भी।दूसरों की कमियों को छुपाएँ,उन्हें नजरअंदाज करें और अच्छाइयों पर ध्यान दें।आजकल देखा जाता है कि लोग एक दूसरे की कमियाँ बहुत जल्दी ढूंढ लेते हैं चाहें हममें खुद में कितनी भी बुराइयाँ हों लेकिन हम हमेशा दूसरों की बुराइयों पर ही ध्यान देते हैं कि अमुक आदमी ऐसा है, वो वैसा है।
हमें नकारात्मक परिस्थितियों में भी सकारात्मक सोचना
चाहिए और हमारी सकारात्मक सोच हमारी हर समस्यों को हल करती है।

हमेशा अच्छा करो l

एक औरत अपने परिवार के सदस्यों के लिए रोज़ाना भोजन पकाती थी और एक रोटी वह वहाँ से गुजरने वाले किसी भी भूखे के लिए पकाती थी..।

वह उस रोटी को खिड़की के सहारे रख दिया करती थी, जिसे कोई भी ले सकता था..।

एक कुबड़ा व्यक्ति रोज़ उस रोटी को ले जाता और बजाय धन्यवाद देने के अपने रस्ते पर चलता हुआ वह कुछ इस तरह बड़बड़ाता- "जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा..।"

दिन गुजरते गए और ये सिलसिला चलता रहा..

वो कुबड़ा रोज रोटी लेके जाता रहा और इन्ही शब्दों को बड़बड़ाता - "जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा.।"

वह औरत उसकी इस हरकत से तंग आ गयी और मन ही मन खुद से कहने लगी की-"कितना अजीब व्यक्ति है,एक शब्द धन्यवाद का तो देता नहीं है, और न जाने क्या-क्या बड़बड़ाता रहता है, मतलब क्या है इसका.।"

एक दिन क्रोधित होकर उसने एक निर्णय लिया और बोली-"मैं इस कुबड़े से निजात पाकर रहूंगी।"

और उसने क्या किया कि उसने उस रोटी में ज़हर मिला दिया जो वो रोज़ उसके लिए बनाती थी, और जैसे ही उसने रोटी को को खिड़की पर रखने कि कोशिश की, कि अचानक उसके हाथ कांपने लगे और रुक गये और वह बोली- "हे भगवन, मैं ये क्या करने जा रही थी.?" और उसने तुरंत उस रोटी को चूल्हे कि आँच में जला दिया..। एक ताज़ा रोटी बनायीं और खिड़की के सहारे रख दी..।

हर रोज़ कि तरह वह कुबड़ा आया और रोटी ले के: "जो तुम बुरा करोगे वह तुम्हारे साथ रहेगा, और जो तुम अच्छा करोगे वह तुम तक लौट के आएगा" बड़बड़ाता हुआ चला गया..।

इस बात से बिलकुल बेख़बर कि उस महिला के दिमाग में क्या चल रहा है..।

हर रोज़ जब वह महिला खिड़की पर रोटी रखती थी तो वह भगवान से अपने पुत्र कि सलामती और अच्छी सेहत और घर वापसी के लिए प्रार्थना करती थी, जो कि अपने सुन्दर भविष्य के निर्माण के लिए कहीं बाहर गया हुआ था..। महीनों से उसकी कोई ख़बर नहीं थी..।

ठीक उसी शाम को उसके दरवाज़े पर एक दस्तक होती है.. वह दरवाजा खोलती है और भोंचक्की रह जाती है.. अपने बेटे को अपने सामने खड़ा देखती है..।

वह पतला और दुबला हो गया था.. उसके कपडे फटे हुए थे और वह भूखा भी था, भूख से वह कमज़ोर हो गया था..।

जैसे ही उसने अपनी माँ को देखा, उसने कहा- "माँ, यह एक चमत्कार है कि मैं यहाँ हूँ.. आज जब मैं घर से एक मील दूर था, मैं इतना भूखा था कि मैं गिर गया.. मैं मर गया होता..।

लेकिन तभी एक कुबड़ा वहां से गुज़र रहा था.. उसकी नज़र मुझ पर पड़ी और उसने मुझे अपनी गोद में उठा लिया.. भूख के मरे मेरे प्राण निकल रहे थे.. मैंने उससे खाने को कुछ माँगा.. उसने नि:संकोच अपनी रोटी मुझे यह कह कर दे दी कि- "मैं हर रोज़ यही खाता हूँ, लेकिन आज मुझसे ज़्यादा जरुरत इसकी तुम्हें है.. सो ये लो और अपनी भूख को तृप्त करो.।"

जैसे ही माँ ने उसकी बात सुनी, माँ का चेहरा पीला पड़ गया और अपने आप को सँभालने के लिए उसने दरवाज़े का सहारा लीया..।

उसके मस्तिष्क में वह बात घुमने लगी कि कैसे उसने सुबह रोटी में जहर मिलाया था, अगर उसने वह रोटी आग में जला के नष्ट नहीं की होती तो उसका बेटा उस रोटी को खा लेता और अंजाम होता उसकी मौत..?

और इसके बाद उसे उन शब्दों का मतलब बिलकुल स्पष्ट हो चूका था-
हमेशा अच्छा करो और अच्छा करने से अपने आप को कभी मत रोको, फिर चाहे उसके लिए उस समय आपकी सराहना या प्रशंसा हो या ना हो..।

मित्र किसी भी व्यक्ति की अनमोल पूँजी होते है।

बहुत बड़ा सरोवर था उसके तट पर मोर
रहता था, और वहीं पास एक
मोरनी भी रहती थी। एक दिन मोर
ने मोरनी से प्रस्ताव रखा कि- "हम
तुम विवाह कर लें,
तो कैसा अच्छा रहे?"
मोरनी ने पूछा- "तुम्हारे मित्र
कितने है ?"
मोर ने कहा उसका कोई मित्र
नहीं है।
तो मोरनी ने विवाह से इनकार कर
दिया।
मोर सोचने लगा सुखपूर्वक रहने के
लिए मित्र बनाना भी आवश्यक है।
उसने एक सिंह से.., एक कछुए से.., और
सिंह के लिए शिकार का पता लगाने
वाली टिटहरी से.., दोस्ती कर लीं।
जब उसने यह समाचार
मोरनी को सुनाया, तो वह तुरंत
विवाह के लिए तैयार हो गई। पेड़ पर
घोंसला बनाया और उसमें अंडे दिए, और
भी कितने ही पक्षी उस पेड़ पर रहते
थे।
एक दिन शिकारी आए। दिन भर
कहीं शिकार न मिला तो वे उसी पेड़
की छाया में ठहर गए और सोचने लगे,
पेड़ पर चढ़कर अंडे- बच्चों से भूख बुझाई
जाए।
मोर दंपत्ति को भारी चिंता हुई,
मोर मित्रों के पास सहायता के लिए
दौड़ा। बस फिर क्या था..,
टिटहरी ने जोर- जोर से
चिल्लाना शुरू किया। सिंह समझ गया,
कोई शिकार है। वह उसी पेड़ के नीचे
चला.., जहाँ शिकारी बैठे थे। इतने में
कछुआ भी पानी से निकलकर बाहर आ
गया।
सिंह से डरकर भागते हुए
शिकारियों ने कछुए को ले चलने
की बात सोची। जैसे ही हाथ
बढ़ाया कछुआ पानी में खिसक गया।
शिकारियों के पैर दलदल में फँस गए।
इतने में सिंह आ पहुँचा और उन्हें ठिकाने
लगा दिया।
मोरनी ने कहा- "मैंने विवाह से पूर्व
मित्रों की संख्या पूछी थी, सो बात
काम की निकली न, यदि मित्र न
होते, तो आज हम सबकी खैर न थी।”
मित्रता सभी रिश्तों में अनोखा और आदर्श रिश्ता होता है।
और मित्र किसी भी व्यक्ति की अनमोल पूँजी होते है।

भीतर ही निर्णायक है।

एक वैश्या मरी और उसी दिन उसके सामने रहने वाला बूढ़ा सन्यासी भी मर गया,संयोग की बात है।
देवता लेने आए सन्यासी को नरक में और वैश्या को स्वर्ग में ले जाने लगे।
संन्यासी एक दम अपना डंडा पटक कर खड़ा हो गया,तुम ये कैसा अन्याय कर रहे हो?
मुझे नरक में और वैश्या को स्वर्ग में ले जा रहे हो,
जरूर कोई भूल हो गई है तुमसे,
कोई दफ्तर की गलती रही होगी,
पूछताछ करो..मेरे नाम आया होगा स्वर्ग का संदेश और इसके नाम नर्क का।
मुझे परमात्मा का सामना कर लेने दो, दो दो बातें हो जाए,सारा जीवन बीत गया शास्त्र पढ़ने में--और ये परिणाम।
मुझे नाहक परमात्मा ने धोखे में डाला।
उसे परमात्मा के पास ले जाया गया,
परमात्मा ने कहा इसके पीछे एक गहन कारण है,
वैश्या शराब पीती थी,भोग में रहती थी,
पर जब तुम मंदिर में बैठकर भजन गाते थे,धूप दीप जलाते थे,घंटियां बजाते थे,,,तब वह सोचती थी कब मेरे जीवन में यह सौभाग्य होगा,
मैं मंदिर में बैठकर भजन कर पाऊंगी कि नहीं,वह ज़ार जार रोती थी,
और तुम्हारे धूप दीप की सुगंध जब उसके घर मेम पहुंचती थी तो वह अपना अहोभाग्य समझती थी,
घंटियों की आवाज सुनकर मस्त हो जाती थी।
लेकिन तुम्हारा मन पूजापाठ करते हुए भी यही सोचता कि वैश्या है तो सुंदर पर वहां तक कैसे पंहुचा जाए?तुम हिम्मत नही जुटा पाए,,तुम्हारी प्रतिष्ठा आड़े आई--गांव भर के लोग तुम्हें संयासी मानते थे।जब वैश्या नाचती थी,शराब बंटती थी,तुम्हारे मन में वासना जगती थी तुम्हें रस था खुद को अभागा समझते रहे..इसलिए वैश्या को स्वर्ग लाया गया और तुम्हें नरक में।वेश्या को विवेक पुकारता था तुम्हें वासना,वह प्रार्थना करती थी तुम इच्छा रखते थे वासना की।वह कीचड़ में थी पर कमल की भांति ऊपर उठती गईऔर तुम कमल बनकर आए थे कीचड़ में धंसे रहे।असली सवाल यह नहीं कि तुम बाहर से क्या हो,,,असली सवाल तो यह है कि तुम भीतर से क्या हो?
भीतर ही निर्णायक है।

हर मौसम एक सा नहीं होता l

बहुत समय पहले की बात है , सुदूर दक्षिण में किसी प्रतापी राजा का राज्य था . राजा के तीन पुत्र थे, एक दिन राजा के मन में आया कि पुत्रों को को कुछ ऐसी शिक्षा दी जाये कि समय आने पर वो राज-काज सम्भाल सकें.
इसी विचार के साथ राजा ने सभी पुत्रों को दरबार में बुलाया और बोला , “ पुत्रों , हमारे राज्य में नाशपाती का कोई वृक्ष नहीं है , मैं चाहता हूँ तुम सब चार-चार महीने के अंतराल पर इस वृक्ष की तलाश में जाओ और पता लगाओ कि वो कैसा होता है ?” राजा की आज्ञा पा कर तीनो पुत्र बारी-बारी से गए और वापस लौट आये .
सभी पुत्रों के लौट आने पर राजा ने पुनः सभी को दरबार में बुलाया और उस पेड़ के बारे में बताने को कहा।
पहला पुत्र बोला , “ पिताजी वह पेड़ तो बिलकुल टेढ़ा – मेढ़ा , और सूखा हुआ था .”
“ नहीं -नहीं वो तो बिलकुल हरा –भरा था , लेकिन शायद उसमे कुछ कमी थी क्योंकि उसपर एक भी फल नहीं लगा था .”, दुसरे पुत्र ने पहले को बीच में ही रोकते हुए कहा .
फिर तीसरा पुत्र बोला , “ भैया , लगता है आप भी कोई गलत पेड़ देख आये क्योंकि मैंने सचमुच नाशपाती का पेड़ देखा , वो बहुत ही शानदार था और फलों से लदा पड़ा था .”
और तीनो पुत्र अपनी -अपनी बात को लेकर आपस में विवाद करने लगे कि तभी राजा अपने सिंघासन से उठे और बोले , “ पुत्रों , तुम्हे आपस में बहस करने की कोई आवश्यकता नहीं है , दरअसल तुम तीनो ही वृक्ष का सही वर्णन कर रहे हो . मैंने जानबूझ कर तुम्हे अलग- अलग मौसम में वृक्ष खोजने भेजा था और तुमने जो देखा वो उस मौसम के अनुसार था.
मैं चाहता हूँ कि इस अनुभव के आधार पर तुम तीन बातों को गाँठ बाँध लो :
पहली , किसी चीज के बारे में सही और पूर्ण जानकारी चाहिए तो तुम्हे उसे लम्बे समय तक देखना-परखना चाहिए . फिर चाहे वो कोई विषय हो ,वस्तु हो या फिर कोई व्यक्ति ही क्यों न हो ।
दूसरी , हर मौसम एक सा नहीं होता , जिस प्रकार वृक्ष मौसम के अनुसार सूखता, हरा-भरा या फलों से लदा रहता है उसी प्रकार मनुषय के जीवन में भी उतार चढाव आते रहते हैं , अतः अगर तुम कभी भी बुरे दौर से गुजर रहे हो तो अपनी हिम्मत और धैर्य बनाये रखो , समय अवश्य बदलता है।
और तीसरी बात , अपनी बात को ही सही मान कर उस पर अड़े मत रहो, अपना दिमाग खोलो , और दूसरों के विचारों को भी जानो। यह संसार ज्ञान से भरा पड़ा है , चाह कर भी तुम अकेले सारा ज्ञान अर्जित नहीं कर सकते , इसलिए भ्रम की स्थिति में किसी ज्ञानी व्यक्ति से सलाह लेने में संकोच मत करो। “

संगति सोच-समझकर करनी चाहिए।



एक बार एक राजा शिकार के उद्देश्य से अपने काफिले के साथ किसी जंगल से गुजर रहा था। दूर-दूर तक शिकार नजर नहीं आ रहा था। वे धीरे-धीरे घनघोर जंगल में प्रवेश कर गए। अभी कुछ ही दूर गए थे कि उन्हें कुछ डाकुओं के छिपने की जगह दिखाई दी। जैसे ही वे उसके पास पहुंचे कि पास के पेड़ पर बैठा तोता बोल पड़ा, ‘‘पकड़ो-पकड़ो एक राजा आ रहा है, इसके पास बहुत सारा सामान है। लूटो-लूटो जल्दी आओ, जल्दी आओ।’’

तोते की आवाज सुन कर सभी डाकू राजा की ओर दौड़ पड़े। डाकुओं को अपनी ओर आते देख कर राजा और उसके सैनिक भाग खड़े हुए और कोसों दूर निकल गए। सामने एक बड़ा-सा पेड़ दिखाई दिया। कुछ देर सुस्ताने के लिए वे उस पेड़ के पास चले गए। जैसे ही पेड़ के पास पहुंचे कि उस पेड़ पर बैठा तोता बोल पड़ा, ‘‘आओ राजन, हमारे साधु-महात्मा की कुटी में आपका स्वागत है। अंदर आइए पानी पीजिए और विश्राम कर लीजिए।’’

तोते की इस बात को सुनकर राजा हैरत में पड़ गया और सोचने लगा कि एक ही जाति के दो प्राणियों का व्यवहार इतना अलग-अलग कैसे हो सकता है। राजा को कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह तोते की बात मानकर अंदर साधु की कुटिया की ओर चला गया। साधु-महात्मा को प्रणाम कर उनके समीप बैठ गया और अपनी सारी कहानी सुनाई और फिर धीरे से पूछा, ‘‘ऋषिवर इन दोनों तोतों के व्यवहार में आखिर इतना अंतर क्यों है?’’

साधु-महात्मा ने धैर्य से सारी बात सुनी और बोले, ‘‘यह कुछ नहीं राजन, संगति का असर है। डाकुओं के साथ रह कर तोता भी डाकुओं की तरह व्यवहार करने लगा है और उनकी ही भाषा बोलने लगा है अर्थात जो जिस वातावरण में रहता है वह वैसा ही बन जाता है।’’

शिक्षा : मूर्ख भी विद्वानों के साथ रह कर विद्वान बन जाता है और अगर विद्वान भी मूर्खों की संगत में रहता है तो उसके अंदर भी मूर्खता आ जाती है। इसलिए हमें संगति सोच-समझकर करनी चाहिए।

आदतें नस्लों का पता देती हैं l

आदतें नस्लों का पता देती हैं...

एक बादशाह के दरबार मे एक अजनबी नौकरी  के लिए हाज़िर हुआ ।
क़ाबलियत पूछी गई, कहा, "सियासी हूँ ।" ( अरबी में सियासी , अक्ल से मामला हल करने वाले को कहते हैं ।)
बादशाह के पास राजदरबारियों की भरमार थी, उसे खास "घोड़ों के अस्तबल का इंचार्ज" बना लिया।
चंद दिनों बाद बादशाह ने उस से अपने सब से महंगे और अज़ीज़ घोड़े के बारे में पूछा,
उसने कहा, "नस्ली नही  हैं ।"
बादशाह को ताज्जुब हुआ, उसने जंगल से घोड़े की जानकारी वालो को बुला कर जांच कराई..
उसने बताया, घोड़ा नस्ली हैं, लेकिन इसकी पैदायश पर इसकी मां मर गई थी, ये एक गाय का दूध पी कर उसके साथ पला है।
बादशाह ने अपने सियासी को बुलाया और पूछा तुम को कैसे पता चला के घोड़ा नस्ली नहीं हैं ?"

""उसने कहा "जब ये घास खाता है तो गायों की तरह सर नीचे करके, जबकि नस्ली घोड़ा घास मुह में लेकर सर उठा लेता हैं ।"""

बादशाह उसकी परख से बहुत खुश हुआ, उसने सियासी के घर अनाज ,घी, भुने और अच्छा मांस बतौर इनाम भिजवाया।

और उसे रानी के महल में तैनात कर दिया।
चंद दिनो बाद , बादशाह ने उस से बेगम के बारे में राय मांगी, उसने कहा, "तौर तरीके तो रानी जैसे हैं लेकिन राजकुमारी नहीं हैं ।"

बादशाह के पैरों तले जमीन निकल गई, हवास दुरुस्त हुए तो अपनी सास को बुलाया, मामला उसको बताया, सास ने कहा "हक़ीक़त ये हैं,  कि आपके पिता ने मेरे पति से हमारी बेटी की पैदायश पर ही रिश्ता मांग लिया था, लेकिन हमारी बेटी 6 माह में ही मर गई थी, लिहाज़ा हम ने आपकी बादशाहत से करीबी रिश्ते क़ायम करने के लिए किसी और कि बच्ची को अपनी बेटी बना लिया।"

बादशाह ने अपने सियासी से पूछा "तुम को कैसे जानकारी हुई ?"

""उसने कहा, "उसका नौकरोंं के साथ सुलूक मूर्खो से भी बदतर हैं । एक खानदानी इंसान का दूसरों से व्यवहार करने का एक तरीका एक शिष्टाचार होता हैं, जो रानी में बिल्कुल नहीं । """

बादशाह फिर उसकी परख से खुश हुआ और बहुत से अनाज , भेड़ बकरियां बतौर इनाम दीं साथ ही उसे अपने दरबार मे शामिल कर लिया।

कुछ वक्त गुज़रा, सियासी को बुलाया,अपने बारे में जानकारी चाही।
सियासी ने कहा "जान की खैर हो तो बताऊ ।"

बादशाह ने वादा किया । उसने कहा, "न तो आप बादशाह के पुत्र हो न आपका चलन बादशाहों वाला है।"

बादशाह को ताव आया, मगर जान की खैर दे चुका था, सीधा अपनी माँ के महल पहुंचा ।

माँ ने कहा, "ये सच है, तुम एक चरवाहे के बेटे हो, हमारी औलाद नहीं थी तो तुम्हे लेकर हम ने पाला ।"

बादशाह ने सियासी को बुलाया और पूछा , बता, "तुझे कैसे पता हुआ ????"

उसने कहा "बादशाह जब किसी को "इनाम " दिया करते हैं, तो हीरे मोती जवाहरात की शक्ल में देते हैं....लेकिन आप भेड़, बकरियां, खाने पीने की चीजें देते हैं...ये चलन बादशाह के बेटे का नही,  किसी चरवाहे के बेटे का ही हो सकता है।"

किसी इंसान के पास कितनी धन दौलत, सुख समृद्धि, रुतबा, इल्म, बाहुबल हैं ये सब बाहरी चरित्र हैं ।
इंसान की असलियत, उस के खून की किस्म उसके व्यवहार, उसकी नीयत से होती हैं ।

एक इंसान बहुत आर्थिक, शारीरिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से बहुत शक्तिशाली होने के उपरांत भी अगर वह छोटी छोटी चीजों के लिए नियत खराब कर लेता हैं, इंसाफ और सच की कदर नहीं करता,   अपने पर उपकार और विश्वास करने वालों के साथ दगाबाजी कर देता हैं, या अपने तुच्छ फायदे और स्वार्थ पूर्ति के लिए दूसरे इंसान को बड़ा नुकसान पहुंचाने की लिए तैयार हो जाता हैं, तो समझ लीजिए, खून में बहुत बड़ी खराबी हैं । बाकी सब तो पीतल पर चढ़ा हुआ सोने का पानी हैं ।
( एक अरबी कहानी )

सोच समझ कर बोलें_।

एक बादशाह ने ख्वाब देखा के उसके सारे दांत टूट कर गिर पड़े हैं। बादशाह ने एक मुफ़स्सिर ( ख्वाब का फल बताने वाला ) को बुलवा कर उसे ख्वाब सुनाया।
मुफ़स्सिर ने बादशाह से कहा ;
इसका फल ये बनता है कि आपके सारे घर वाले आपके सामने मरेंगे* बादशाह को बहुत गुस्सा आया। उसने मुफ़स्सिर को क़त्ल करवा दिया।
एक और मुफ़स्सिर को बुलवाया गया, बादशाह ने उसको अपना ख्वाब सुनाया,
मुफ़स्सिर ने कहा ;"बादशाह सलामत आपको मुबारक हो, ख्वाब का फल ये बनता है कि आप अपने घर वालों में सब से लंबी उम्र पाएंगे।"
बादशाह ने खुश होकर मुफ़स्सिर को इनाम दिया।
क्या इस बात का यही मतलब नही बनता के अगर बादशाह अपने घर वालों में सब से लंबी उम्र पाएगा तो उसके सारे घर वाले उसके सामने ही मर जायेंगे ??
जी ! मतलब तो यही बनता है मगर बात बात में और शब्दों में फ़र्क़ है।
आपका बोला गया एक एक शब्द किसी दूसरे के लिए मरहम भी बन सकता है और ज़ख्म भी दे सकता है। शब्दों का चयन आपके हाथ मे है। "
_लिहाज़ा सोच समझ कर बोलें_।

औरत चाहे घर को स्वर्ग बना दे, चाहे नर्क!

एक गांव में एक जमींदार था। 
उसके कई नौकरों में जग्गू भी था। गांव से लगी बस्ती में, बाकी मजदूरों के साथ जग्गू भी अपने पांच लड़कों के साथ रहता था। 
जग्गू की पत्नी बहुत पहले गुजर गई थी। एक झोंपड़े में वह बच्चों को पाल रहा था। बच्चे बड़े होते गये और जमींदार के घर नौकरी में लगते गये।
सब मजदूरों को शाम को मजूरी मिलती। जग्गू और उसके लड़के चना और गुड़ लेते थे। चना भून कर गुड़ के साथ खा लेते थे।
बस्ती वालों ने जग्गू को बड़े लड़के की शादी कर देने की सलाह दी।
उसकी शादी हो गई और कुछ दिन बाद गौना भी आ गया। उस दिन जग्गू की झोंपड़ी के सामने बड़ी बमचक मची। बहुत लोग इकठ्ठा हुये नई बहू देखने को
फिर धीरे धीरे भीड़ छंटी आदमी काम पर चले गये। औरतें अपने अपने घर जाते जाते एक बुढ़िया बहू से कहती गई – पास ही घर है। किसी चीज की जरूरत हो तो संकोच मत करना, आ जाना लेने। सबके जाने के बाद बहू ने घूंघट उठा कर अपनी ससुराल को देखा तो उसका कलेजा मुंह को आ गया जर्जर सी झोंपड़ी, खूंटी पर टंगी कुछ पोटलियां और झोंपड़ी के बाहर बने छः चूल्हे (जग्गू और उसके सभी बच्चे अलग अलग चना भूनते थे)। बहू का मन हुआ कि उठे और सरपट अपने गांव भाग चले। 
पर अचानक उसे सोच कर धक्का लगा– वहां कौन से नूर गड़े हैं। मां है नहीं। भाई भौजाई के राज में नौकरानी जैसी जिंदगी ही तो गुजारनी होगी। यह सोचते हुये वह बुक्का फाड़ रोने लगी। रोते-रोते थक कर शान्त हुई। मन में कुछ सोचा। पड़ोसन के घर जा कर पूछा –
अम्मां एक झाड़ू मिलेगा? बुढ़िया अम्मा ने झाड़ू, गोबर और मिट्टी दी।साथ मेंअपनी पोती को भेज दिया।वापस आ कर बहू ने
एक चूल्हा छोड़ बाकी फोड़ दिये
सफाई कर गोबर-मिट्टी से झोंपड़ीऔर दुआर लीपा।फिर उसने सभी पोटलियों के चने एक साथ किये 
और अम्मा के घर जा कर चना पीसा।अम्मा ने उसे सागऔर चटनी भी दी। वापस आ कर बहू ने चने के आटे की रोटियां बनाई और इन्तजार करने लगी।जग्गू और उसके लड़के जब लौटे तो एक ही चूल्हा देख भड़क गये।चिल्लाने लगे कि इसने तो आते ही सत्यानाश कर दिया। अपने आदमी का छोड़ बाकी सब का चूल्हा फोड़ दिया। झगड़े की आवाज सुन बहू झोंपड़ी से निकली। बोली –आप लोग हाथ मुंह धो कर बैठिये, मैं खाना
निकालती हूं। सब अचकचा गये! हाथ मुंह धो कर बैठे। बहू ने पत्तल पर खाना परोसा – रोटी, साग, चटनी। मुद्दत बाद उन्हें ऐसा खाना मिला था। खा कर अपनी अपनी खटिया लेके सोने चले गये।
सुबह काम पर जाते समय बहू ने उन्हें एक एक रोटी और गुड़ दिया।चलते समय जग्गू से उसने पूछा – बाबूजी, मालिक आप लोगों को चना और गुड़ ही देता है क्या? जग्गू ने बताया कि मिलता तो सभी अन्न है पर वे चना-गुड़ ही लेते हैं।आसान रहता है खाने में। बहू ने समझाया कि सब
अलग अलग प्रकार का अनाज लिया करें। देवर ने बताया कि उसका काम लकड़ी चीरना है। बहू ने उसे घर के ईंधन के लिये भी कुछ लकड़ी लाने को कहा।बहू सब की मजदूरी के अनाज से एक- एक मुठ्ठी अन्न अलग रखती। उससे बनिये की दुकान से बाकी जरूरत की चीजें लाती। जग्गू की गृहस्थी धड़ल्ले से चल पड़ी। एक दिन सभी भाइयों और बाप ने तालाब की मिट्टी से झोंपड़ी के आगे बाड़ बनाया। बहू के गुण गांव में चर्चित होने लगे।जमींदार तक यह बात पंहुची। वह कभी कभी बस्ती में आया करता था।
आज वह जग्गू के घर उसकी बहू को आशीर्वाद देने आया। बहू ने पैर छू
प्रणाम किया तो जमींदार ने उसे एक हार दिया। हार माथे से लगा बहू ने कहा कि मालिक यह हमारे किस काम आयेगा। इससे अच्छा होता कि मालिक हमें चार लाठी जमीन दिये होते झोंपड़ी के दायें - बायें,तो एक कोठरी बन जाती। बहू की चतुराई पर जमींदार हंस पड़ा। बोला –
ठीक, जमीन तो जग्गू को मिलेगी ही। यह हार तो तुम्हारा हुआ।
यह कहानी हमें सीख देती है औरत चाहे घर को स्वर्ग बना दे, चाहे नर्क! 
मुझे लगता है कि देश, समाज, और आदमी को औरत ही गढ़ती है। 

सफलता का रहस्य

सफलता का रहस्य
एक आठ साल का लड़का गर्मी की छुट्टियों में अपने दादा जी के पास गाँव घूमने आया। एक दिन वो बड़ा खुश था, उछलते-कूदते वो दादाजी के पास पहुंचा और बड़े गर्व से बोला, ” जब मैं बड़ा होऊंगा तब मैं बहुत सफल आदमी बनूँगा। क्या आप मुझे सफल होने के कुछ टिप्स दे सकते हैं?”
दादा जी ने ‘हाँ’ में सिर हिला दिया, और बिना कुछ कहे लड़के का हाथ पकड़ा और उसे करीब की पौधशाला में ले गए। वहां जाकर दादा जी ने दो छोटे-छोटे पौधे खरीदे और घर वापस आ गए।वापस लौट कर उन्होंने एक पौधा घर के बाहर लगा दिया और एक पौधा गमले में लगा कर घर के अन्दर रख दिया।
“क्या लगता है तुम्हे, इन दोनों पौधों में से भविष्य में कौन सा पौधा अधिक सफल होगा?”, दादा जी ने लड़के से पूछा। लड़का कुछ क्षणों तक सोचता रहा और फिर बोला, ” घर के अन्दर वाला पौधा ज्यादा सफल होगा क्योंकि वो हर एक खतरे से सुरक्षित है जबकि बाहर वाले पौधे को तेज धूप, आंधी-पानी, और जानवरों से भी खतरा है…”
दादाजी बोले, ” चलो देखते हैं आगे क्या होता है !”, और वह अखबार उठा कर पढने लगे।कुछ दिन बाद छुट्टियाँ ख़तम हो गयीं और वो लड़का वापस शहर चला गया।
इस बीच दादाजी दोनों पौधों पर बराबर ध्यान देते रहे और समय बीतता गया। ३-४ साल बाद एक बार फिर वो अपने पेरेंट्स के साथ गाँव घूमने आया और अपने दादा जी को देखते ही बोला, “दादा जी, पिछली बार मैं आपसे successful होने के कुछ टिप्स मांगे थे पर आपने तो कुछ बताया ही नहीं…पर इस बार आपको ज़रूर कुछ बताना होगा।”
दादा जी मुस्कुराये और लडके को उस जगह ले गए जहाँ उन्होंने गमले में पौधा लगाया था। अब वह पौधा एक खूबसूरत पेड़ में बदल चुका था। लड़का बोला, ” देखा दादाजी मैंने कहा था न कि ये वाला पौधा ज्यादा सफल होगा…”
“अरे, पहले बाहर वाले पौधे का हाल भी तो देख लो…”, और ये कहते हुए दादाजी लड़के को बाहर ले गए, बाहर एक विशाल वृक्ष गर्व से खड़ा था! उसकी शाखाएं दूर तक फैलीं थीं और उसकी छाँव में खड़े राहगीर आराम से बातें कर रहे थे।
“अब बताओ कौन सा पौधा ज्यादा सफल हुआ?”, दादा जी ने पूछा।
“…ब..ब…बाहर वाला!….लेकिन ये कैसे संभव है, बाहर तो उसे न जाने कितने खतरों का सामना करना पड़ा होगा….फिर भी…”, लड़का आश्चर्य से बोला।
दादा जी मुस्कुराए और बोले, “हाँ, लेकिन challenges face करने के अपने rewards भी तो हैं, बाहर वाले पेड़ के पास आज़ादी थी कि वो अपनी जड़े जितनी चाहे उतनी फैला ले, आपनी शाखाओं से आसमान को छू ले…बेटे, इस बात को याद रखो और तुम जो भी करोगे उसमे सफल होगे- अगर तुम जीवन भर safe option choose करते हो तो तुम कभी भी उतना नहीं grow कर पाओगे जितनी तुम्हारी क्षमता है, लेकिन अगर तुम तमाम खतरों के बावजूद इस दुनिया का सामना करने के लिए तैयार रहते हो तो तुम्हारे लिए कोई भी लक्ष्य हासिल करना असम्भव नहीं है! लड़के ने लम्बी सांस ली और उस विशाल वृक्ष की तरफ देखने लगा…वो दादा जी की बात समझ चुका था, आज उसे सफलता का एक बहुत बड़ा सबक मिल चुका था!
दोस्तों, भगवान् ने हमें एकmeaningful life जीने के लिए बनाया है। But unfortunately, अधिकतर लोग डर-डर के जीते हैं और कभी भी अपने full potential को realize नही कर पाते। इस बेकार के डर को पीछे छोडिये…ज़िन्दगी जीने का असली मज़ा तभी है जब आप वो सब कुछ कर पाएं जो सब कुछ आप कर सकते हैं…वरना दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ तो कोई भी कर लेता, इसलिए हर समय play it safe के चक्कर में मत पड़े रहिये…जोखिम उठाइए… risk लीजिये और उस विशाल वृक्ष की तरह अपनी life को large बनाइये!

सप्तर्षि l

सप्तर्षि
आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं।
वेदों के रचयिता ऋषि : ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं।
वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- 1.वशिष्ठ, 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव और 7.शौनक।
पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार सप्तऋषि इस प्रकार है :- वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत। विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।। अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।
महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है। प्रस्तुत है सप्तऋषियों का परिचय।
वशिष्ठ : राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।
विश्वामित्र : ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।
माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।
कण्व : माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।
भारद्वाज : वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।
ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में 10 ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के 765 मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के 23 मन्त्र मिलते हैं। 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे। ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।
अत्रि : ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।
अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।
वामदेव : वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं।
शौनक : शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।
वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।

परमात्मा l

एक 6 साल का छोटा सा बच्चा अक्सर परमात्मा से मिलने की जिद किया करता था। उसकी चाहत थी की एक समय की रोटी वो परमात्मा के साथ खाये।
1 दिन उसने 1 थैले में 5, 6 रोटियां रखीं और परमात्मा को ढूंढने निकल पड़ा।
चलते चलते वो बहुत दूर निकल आया संध्या का समय हो गया।
उसने देखा नदी के तट पर 1 बुजुर्ग बूढ़ा बैठा हैं, और ऐसा लग रहा था जैसे उसी के इन्तजार में वहां बैठा उसका रास्ता देख रहा हों।
वो 6 साल का मासूम बालक,बुजुर्ग बूढ़े के पास जा कर बैठ गया,।अपने थैले में से रोटी निकाली और खाने लग गया।और उसने अपना रोटी वाला हाँथ बूढे की ओर बढ़ाया और मुस्कुरा के देखने लगा,बूढे ने रोटी ले ली,। बूढ़े के झुर्रियों वाले चेहरे पर अजीब सी ख़ुशी आ गई आँखों में ख़ुशी के आंसू भी थे,,,,
बच्चा बुढ़े को देखे जा रहा था, जब बुढ़े ने रोटी खा ली बच्चे ने एक और रोटी बूढ़े को दी।
बूढ़ा अब बहुत खुश था। बच्चा भी बहुत खुश था। दोनों ने आपस में बहुत प्यार और स्नेह केे पल बिताये।
जब रात घिरने लगी तो बच्चा इजाज़त ले घर की ओर चलने लगा।
वो बार बार पीछे मुड़ कर देखता , तो पाता बुजुर्ग बूढ़ा उसी की ओर देख रहा था।
बच्चा घर पहुंचा तो माँ ने अपने बेटे को आया देख जोर से गले से लगा लिया और चूमने लगी,बच्चा बहूत खुश था।
माँ ने अपने बच्चे को इतना खुश पहली बार देखा तो ख़ुशी का कारण पूछा, तो बच्चे ने बताया !
माँ,....आज मैंने परमात्मा के सांथ बैठ कर रोटी खाई,आपको पता है उन्होंने भी मेरी रोटी खाई,,,माँ परमात्मा् बहुत बूढ़े हो गये हैं,,,मैं आज बहुत खुश हूँ माँ
उस तरफ बुजुर्ग बूढ़ा भी जब अपने गाँव पहूँचा तो गाव वालों ने देखा बूढ़ा बहुत खुश हैं,तो किसी ने उनके इतने खुश होने का कारण पूछा????
बूढ़ा बोलां,,,,मैं 2 दिन से नदी के तट पर अकेला भूखा बैठा था,,मुझे पता था परमात्मा आएंगे और मुझे खाना खिलाएंगे।
आज भगवान् आए थे, उन्होंने मेरे साथ बैठ कर रोटी खाई मुझे भी बहुत प्यार से खिलाई,बहुत प्यार से मेरी और देखते थे, जाते समय मुझे गले भी लगाया,,परमात्मा बहुत ही मासूम हैं बच्चे की तरह दिखते हैं।
एक सीख:
इस कहानी का अर्थ बहुत गहराई वाला है। असल में बात सिर्फ इतनी है की दोनों के दिलों में परमात्मा के लिए प्यार बहुत सच्चा है। और परमात्मा ने दोनों को,दोनों के लिये, दोनों में ही (परमात्मा) खुद को भेज दिया। *जब मन परमात्मा भक्ति में रम जाता है तो हमे हर एक में वो ही नजर आने लग जाते है

शेर l

दो शेरों की दोस्ती बिगड़ जाती है, दोनों ही एक दुसरे के दुश्मन हो जाते हैं, फिर दोनों एक दूसरे से 10 साल तक बात तक नही करते......
एक बार शेर और उसकी बीवी-बच्चों को 25-30 कुत्ते नोचने लगते हैं....... तभी दूसरा शेर आता है, और उन कुत्तों को केले के छिलके की तरह फाड़ के भाग देता है...... और फिर से दूर जा के बैठ जाता है.....
पहले शेर का बेटा उससे पूछता है कि पापा दूसरे शेर से तो आप बात तक नही करते, फिर भी उसने हमको क्यों बचाया ??
पहले शेर ने कहा - बेटा, भले ही नाराज़गी हो, पर दोस्ती इतनी भी कमजोर नही होना चाहिए कि कुत्ते फायदा उठा लें ।

स्वार्थी l


एक ब्राह्मण जंगल में एक तालाब के पास से होकर निकला। वहाँ एक बाघ कीचड़ में फंसा हुआ था, उसने ब्राह्मण को आवाज देकर कहा-महाराज ! दया करके मुझे यहाँ से निकालिये वर्ना मैं बिन मौत मर जाऊँगा।
ब्राह्मण बोला-हे वनराज ! तुम विकराल प्राणी हो,यदि मैंने तुम्हें निकाला तो तुम मुझे ही खा जाओगे। बाघ ने कहा-महाराज ! मैं वचन देता हूँ आपको नहीं खाऊँगा। ब्राह्मण को बाघ पर विश्वास हो गया और उसने बाघ की मदद करके उसे बाहर निकाल दिया।
बाघ बोला-महाराज ! आप कहाँ जा रहे हो ?
ब्राह्मण बोला मैं पास के गाँव में आज जमींदार के यहाँ ब्रह्मभोज था, वहाँ से भोजन करके आ रहा हूँ। 
बाघ कहने लगा हे ब्राह्मण ! आप अच्छा भोजन खाकर मोटे हो गये हो अब मैं आपको खाऊँगा।
ब्राह्मण चौंका,भागना चाहा,फिर कुछ सोचकर बोला-तुमने मुझे वचन दिया है फिर वचन तोड़कर अधर्म क्यों कर रहे हो ?
बाध ने कहा धर्म-अधर्म मैं नहीं जानता तू मनुष्य है और मेरा भोजन है, चल अब मरने के लिये तैयार हो जा..
ब्राह्मण ने कहा अच्छा ठीक है, लेकिन थोड़ा समय दें I पहले हम 3 लोगों से निर्णय करा लेते हैं।
बाघ बोला यहाँ तीन मनुष्य नहीं मिल सकते ,तब तक क्या मैं भूखा रहूँ?
ब्राह्मण ने कहा वनराज ! बहुत देर नहीं होगी, आप तालाब के किनारे से थोड़ा आगे तो बढ़ें, बाघ ने बात मान ली..
जब कोई नजर न आया तो उन्होंने एक वृक्ष को पूरी बात सुनाकर निर्णय पूछा, वृक्ष बोला-हाँ बाघ का कहना उचित है, इस संसार में भलाई नहीं है देखो मैं अपने फल देता हूँ, धूप सहकर छाया देता हूँ, ठंडी हवा देता हूँ, लेकिन मानव हमें ही अपने स्वार्थ के लिये काट देते हैं, उपकार के बदले अपकार करते हैं।तूने व्याघ्र की जान बचाई, अब ये तुझे खाऐगा। बाघ बोला देखो मेरा कार्य अन्याय युक्त नहीं है।
ब्राह्मण बोला-रुको ,दूसरे से पूछ लें।
थोड़ी दूरी पर एक मटका टूटा पड़ा मिला I
ब्राह्मण ने सारी बात बताकर उससे न्याय करने को कहा। मटका बोला-बाघ का आचरण उचित ही है। जो उपकार करके अपकार की आश नहीं रखता वो मूर्ख ही है, संसार का नियम स्वार्थ का है।
मैं मिट्टी था, गीला हुआ, पीसा-पीटा गया,कुम्हार के हाथ से चोट खाई, आँच में तपाया गया, सबको शीतल जल दिया, और आज देखो मेरी कैसी दुर्दशा कर दी है।
बाघ प्रसन्न होकर बोला ब्रह्मदेव ! न्याय सुन लिया,अब निर्णयानुसार मरने को तैयार हो जाओ।
ब्राह्मण बोला-बस एक और से पूछ लें, बाघ अधीर हो रहा था फिर भी कहा ठीक है चलो..
थोड़ा चलने पर उनको एक लोमड़ा नजर आया जो बाघ को देखकर भागने लगा, ब्राह्मण ने कहा रुको भाई ! डरो मत एक निर्णय करते जाओ।
लोमड़ा बोला-महाराज ! दूर से ही सुना दो, मैं न्याय कर दूँगा।
तब ब्राह्मण ने पूरी बात सुनाकर कहा कि मैने इसे बचाया ये मुझे खाना चाहता है, अब न्याय करो,लोमड़ा कुछ सोचकर बोला-आपकी बातें मैं कुछ समझा नहीं, आप आगे आगे सरोवर पर चलो वहीं जाकर निर्णय करेंगे।
वहाँ जाकर बाघ कीचड़ में गया और बोला मैं यहाँ फंसा हुआ था, लोमडे ने पूछा क्या ये सत्य है? ब्राह्मण ने कहा-नहीं इससे आगे था, तब बाघ और आगे जाकर उसी दलदल में फिर फँस गया, उसको वहीं पर फंसा देखकर ब्राह्मण ने कहाँ हाँ-हाँ सत्य है ये यही फंसा हुआ था।
उसे कीचड़ में फँसा देखकर लोमड़ा बोला-भोलेनाथ! अब भाग जाईये, मैं भी भाग जाता हूँ इस स्वार्थी को यमराज के लोक में जाने दो, और वो दोनो वहाँ से भाग गये। बाघ को बड़ा क्रोध आया, लेकिन अब हो भी क्या सकता था? अंत में वह वहीं कीचड़ में फंसकर मर गया। इस कहानी का सार है कि बाघ ने दुःख निवृत्ति की ईच्छा की।संयोगवश ब्राह्मण को दया आई और उसने उसे बाहर निकाल दिया। फिर जब उसने ब्राह्मण को ही खाने की इच्छा की तो कीचड़ में फंसकर मर गया। सोचने की बात यह है कि सुख की इच्छा करने से भी दुःख मिल जाता है, यदि बाघ ब्राह्मण को खाकर सुख की इच्छा न करता तो कीचड़ में फँसकर न मरता। ये संसार विचित्र है, भले का बुरा और बुरे का भला पता नहीं कब कैसे हो जाऐ..सब हरि की इच्छा पर निर्भर है, लेकिन ये संसार स्वार्थों के कारण ही ज्यादा दुःखी है..

विरासत l

विरासत:-
मृत्यु के समय,टॉम स्मिथ ने अपने बच्चों को बुलाया और अपने पदचिह्नों पर चलने की सलाह दी,ताकि उनको अपने हर कार्य में मानसिक शांति मिले। उसकी बेटी सारा ने कहा,डैडी, यह दुर्भाग्यपूर्ण है किआप अपने बैंक में एक पैसाभी छोड़े बिना मर रहे हैं।
दूसरे पिता, जिनको आप भ्रष्ट और सार्वजनिक धन के चोर बताते हैं, अपने बच्चों के
लिए घर और सम्पत्ति छोड़कर जाते हैं। यह घर भी जिसमें हम रहते हैं किराये का है।सॉरी, मैं आपका अनुसरण नहीं कर सकती। आप जाइए, हमें अपना मार्ग स्वयं बनाने
दीजिए।कुछ क्षण बाद उनके पिता ने अपने प्राण त्याग दिये।
तीन साल बाद, सारा एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में इंटरव्यू देने गई। इंटरव्यू में कमेटी के
चेयरमैन ने पूछा, "तुम कौन सी स्मिथ हो?" सारा ने उत्तर दिया, मैं सारा स्मिथ हूँ।
मेरे पिता टॉम स्मिथ अब नहीं रहे।
चेयरमैन ने उसकी बात काट दी, "हे भगवान! तुम टॉम स्मिथ की पुत्री हो?"
वे कमेटी के अन्य सदस्यों की ओर घूमकर बोले, यह आदमी स्मिथ वह था जिसने
प्रशासकों के संस्थान में मेरे सदस्यता फ़ार्म पर हस्ताक्षर किये थे और उसकी संस्तुति
से ही मैं वह स्थान पा सका हूँ, जहाँ मैं आज हूँ। उसने यह सब कुछ भी बदले में लिये
बिना किया था। मैं उसका पता भी नहीं जानता था और व भी मुझे कभी नहीं जानता था।
पर उसने मेरे लिए यह सब किया था।
फिर वे सारा की ओर मुड़े, मुझे तुमसे कोई सवाल नहीं पूछना है। तुम स्वयं को इस
पद पर चुना हुआ मान लो। कल आना, तुम्हारा नियुक्ति पत्र तैयार मिलेगा।
सारा स्मिथ उस कम्पनी में कॉरपोरेट मामलों की प्रबंधक बन गई। उसे ड्राइवर सहित
दो कारें,ऑफिस से जुड़ा हुआ डुप्लेक्स मकान और एक लाख पाउंड प्रतिमाह का वेतन अन्य भत्तों और ख़र्चों के साथ मिला।
उस कम्पनी में दो साल कार्य करने के बाद,एक दिन कम्पनी का प्रबंध निदेशक अमेरिका से आया। उसकी इच्छा त्यागपत्र देने और अपने बदले किसी अन्य को पद देने की थी।
उसे एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो बहुत सत्यनिष्ठ (ईमानदार) हो।
कम्पनी के सलाहकार ने उस पद के लिए सारा स्मिथ को नामित किया।
एक इंटरव्यू में सारा से उसकी सफलता का राज पूछा गया। आँखों में आँसू
भरकर उसने उत्तर दिया, मेरे पिता ने मेरे लिए मार्ग खोला था। उनकी मृत्यु के
बाद ही मुझे पता चला कि वे वित्तीय दृष्टि से निर्धन थे, लेकिन प्रामाणिकता,
अनुशासन और सत्यनिष्ठा में वे बहुत ही धनी थे।
फिर उससे पूछा गया कि वह रो क्यों रही है, क्योंकि अब वह बच्ची नहीं रही कि इतने समय बाद
पिता को अभी भी याद करती हो।
उसने उत्तर दिया, मृत्यु के समय, मैंने ईमानदार और प्रामाणिक होने के कारण अपने पिता का
अपमान किया था। मुझे आशा है कि अब वे अपनी क़ब्र में मुझे क्षमा कर देंगे। मैंने यह सब प्राप्त
करने के लिए कुछ नहीं किया, उन्होंने ही मेरे लिए यह सब किया था।
अन्त में उससे पूछा गया, क्या तुम अपने पिता के पदचिह्नों पर चलोगी जैसा कि उन्होंने कहा था? उसका सीधा उत्तर था, मैं अब अपने पिता की पूजा करती हूँ, उनका बड़ा सा चित्र मेरे रहने के कमरे में और घर के प्रवेश द्वार पर लगा है। मेरे लिए भगवान के बाद उनका ही स्थान है।
क्या आप टॉम स्मिथ की तरह हैं?
नाम कमाना सरल नहीं होता। इसका पुरस्कार जल्दी नहीं मिलता, पर देर सवेर मिलेगा ही। और वह हमेशा बना रहेगा।
*ईमानदारी, अनुशासन,*
*आत्मनियंत्रण और ईश्वर से*
*डरना ही किसी व्यक्ति*
*को धनी बनाते हैं,*

अंदर से खाली l

एक देहाती ने शहर मे फुटबाल खेलते हुये लोगों को देखकर करीब खड़े बुजुर्ग से पुछा - चाचा इस गेंद की क्या गलती है
जो सारे मिलकर इसे लातों से मार रहे हैं. ?
बुजुर्ग ने जवाब दिया बेटा,, *इस गेंद की सबसे बडी गलती ये है कि,, ये अंदर से खाली है वर्ना किसी की मजाल है कि इसे लातों से मारे..?*
मौजुदा दौर में हम लोगों का भी यही हाल है।

समझ की बात है...


एक भिखारी रेल  सफ़र  में  भीख़  माँगने  के दौरान  एक  सेठ जी से  भीख़  माँगने  लगा।

भिख़ारी  को  देखकर  उस  सेठ  ने कहा, “तुम  हमेशा  मांगते  ही  हो, क्या  कभी  किसी  को  कुछ  देते  भी हो ?”

भिख़ारी  बोला, “साहब  मैं  तो भिख़ारी  हूँ, हमेशा  लोगों  से  मांगता ही  रहता  हूँ, मेरी  इतनी  औकात कहाँ  कि  किसी  को  कुछ  दे  सकूँ ?”

सेठ:- जब  किसी  को  कुछ  दे  नहीं  सकते तो  तुम्हें  मांगने  का  भी  कोई  हक़ नहीं  है। मैं  एक  व्यापारी  हूँ  और लेन-देन  में  ही  विश्वास  करता  हूँ, अगर  तुम्हारे  पास  मुझे  कुछ  देने  को  हो  तभी  मैं  तुम्हे  बदले  में  कुछ दे  सकता  हूँ।

तभी  वह  स्टेशन  आ  गया  जहाँ  पर उस  सेठ  को  उतरना  था, वह  ट्रेन से  उतरा  और  चला  गया।

इधर  भिख़ारी  सेठ  की  कही  गई बात  के  बारे  में  सोचने  लगा। सेठ  के  द्वारा  कही  गयीं  बात  उस भिख़ारी  के  दिल  में  उतर  गई। वह सोचने  लगा  कि  शायद  मुझे  भीख में  अधिक  पैसा  इसीलिए  नहीं मिलता  क्योकि  मैं  उसके  बदले  में किसी  को  कुछ  दे  नहीं  पाता  हूँ। लेकिन  मैं  तो  भिखारी  हूँ, किसी  को कुछ  देने  लायक  भी  नहीं  हूँ।लेकिन कब  तक  मैं  लोगों  को  बिना  कुछ दिए  केवल  मांगता  ही  रहूँगा।

बहुत  सोचने  के  बाद  भिख़ारी  ने निर्णय  किया  कि  जो  भी  व्यक्ति  उसे भीख  देगा  तो  उसके  बदले  मे  वह भी  उस  व्यक्ति  को  कुछ  जरूर  देगा।
लेकिन  अब  उसके  दिमाग  में  यह प्रश्न  चल  रहा  था  कि  वह  खुद भिख़ारी  है  तो  भीख  के  बदले  में  वह  दूसरों  को  क्या  दे  सकता  है ?

इस  बात  को  सोचते  हुए  दिनभर गुजरा  लेकिन  उसे  अपने  प्रश्न का कोई  उत्तर  नहीं  मिला।

दुसरे  दिन  जब  वह  स्टेशन  के  पास बैठा  हुआ  था  तभी  उसकी  नजर कुछ  फूलों  पर  पड़ी  जो  स्टेशन  के आस-पास  के  पौधों  पर  खिल  रहे थे, उसने  सोचा, क्यों  न  मैं  लोगों को  भीख़  के  बदले  कुछ  फूल  दे दिया  करूँ। उसको  अपना  यह विचार  अच्छा  लगा  और  उसने  वहां से  कुछ  फूल  तोड़  लिए।

वह  ट्रेन  में  भीख  मांगने  पहुंचा। जब भी  कोई  उसे  भीख  देता  तो  उसके बदले  में  वह  भीख  देने  वाले  को कुछ  फूल  दे  देता। उन  फूलों  को लोग  खुश  होकर  अपने  पास  रख लेते  थे। अब  भिख़ारी  रोज  फूल तोड़ता  और  भीख  के  बदले  में  उन फूलों  को  लोगों  में  बांट  देता  था।

कुछ  ही  दिनों  में  उसने  महसूस किया  कि  अब  उसे  बहुत  अधिक लोग  भीख  देने  लगे  हैं। वह  स्टेशन के  पास  के  सभी  फूलों  को  तोड़ लाता  था। जब  तक  उसके  पास  फूल  रहते  थे  तब  तक  उसे  बहुत  से  लोग  भीख  देते  थे। लेकिन  जब फूल  बांटते  बांटते  ख़त्म  हो  जाते तो  उसे  भीख  भी  नहीं  मिलती थी,अब  रोज  ऐसा  ही  चलता  रहा ।

एक  दिन  जब  वह  भीख  मांग  रहा था  तो  उसने  देखा  कि  वही  सेठ  ट्रेन  में  बैठे  है  जिसकी  वजह  से  उसे  भीख  के  बदले  फूल  देने  की प्रेरणा  मिली  थी।

वह  तुरंत  उस  व्यक्ति  के  पास  पहुंच गया  और  भीख  मांगते  हुए  बोला, आज  मेरे  पास  आपको  देने  के  लिए कुछ  फूल  हैं, आप  मुझे  भीख  दीजिये  बदले  में  मैं  आपको  कुछ फूल  दूंगा।

शेठ  ने  उसे  भीख  के  रूप  में  कुछ पैसे  दे  दिए  और  भिख़ारी  ने  कुछ फूल  उसे  दे  दिए। उस  सेठ  को  यह बात  बहुत  पसंद  आयी।

सेठ:- वाह  क्या  बात  है..? आज  तुम  भी  मेरी  तरह  एक  व्यापारी  बन गए  हो, इतना  कहकर  फूल  लेकर वह  सेठ  स्टेशन  पर  उतर  गया।

लेकिन  उस  सेठ  द्वारा  कही  गई  बात  एक  बार  फिर  से  उस  भिख़ारी के  दिल  में  उतर  गई। वह  बार-बार उस  सेठ  के  द्वारा  कही  गई  बात  के बारे  में  सोचने  लगा  और  बहुत  खुश  होने  लगा। उसकी  आँखे  अब चमकने  लगीं, उसे  लगने  लगा  कि अब  उसके  हाथ  सफलता  की  वह 🔑चाबी  लग  गई  है  जिसके  द्वारा वह  अपने  जीवन  को  बदल  सकता है।

वह  तुरंत  ट्रेन  से  नीचे  उतरा  और उत्साहित  होकर  बहुत  तेज  आवाज में  ऊपर  आसमान  की  ओर  देखकर बोला, “मैं  भिखारी  नहीं  हूँ, मैं  तो एक  व्यापारी  हूँ..

मैं  भी  उस  सेठ  जैसा  बन  सकता हूँ.. मैं  भी  अमीर  बन  सकता  हूँ !

लोगों  ने  उसे  देखा  तो  सोचा  कि शायद  यह  भिख़ारी  पागल  हो  गया है, अगले  दिन  से  वह  भिख़ारी  उस स्टेशन  पर  फिर  कभी  नहीं  दिखा।

एक  वर्ष  बाद  इसी  स्टेशन  पर  दो व्यक्ति   सूट  बूट  पहने  हुए  यात्रा  कर  रहे  थे। दोनों  ने  एक  दूसरे  को देखा  तो  उनमे  से  एक  ने  दूसरे को हाथ  जोड़कर प्रणाम किया और  कहा, “क्या आपने  मुझे  पहचाना ?”

सेठ:- “नहीं तो ! शायद  हम  लोग पहली  बार  मिल  रहे  हैं।

भिखारी:- सेठ जी.. आप याद कीजिए, हम  पहली  बार  नहीं  बल्कि तीसरी  बार  मिल  रहे  हैं।

सेठ:- मुझे  याद  नहीं  आ  रहा, वैसे हम  पहले  दो  बार  कब  मिले  थे ?

अब  पहला  व्यक्ति  मुस्कुराया  और बोला:

हम  पहले  भी  दो  बार  इसी  ट्रेन में  मिले  थे, मैं  वही  भिख़ारी  हूँ जिसको  आपने  पहली  मुलाकात  में बताया  कि  मुझे  जीवन  में  क्या करना  चाहिए  और  दूसरी  मुलाकात में  बताया  कि  मैं  वास्तव  में  कौन  हूँ।

नतीजा यह निकला कि आज मैं  फूलों  का  एक  बहुत  बड़ा  व्यापारी  हूँ  और  इसी व्यापार  के  काम  से  दूसरे  शहर  जा रहा  हूँ।

आपने  मुझे  पहली  मुलाकात  में प्रकृति  का  नियम  बताया  था... जिसके  अनुसार  हमें  तभी  कुछ मिलता  है, जब  हम  कुछ  देते  हैं। लेन  देन  का  यह  नियम  वास्तव  में काम  करता  है, मैंने  यह  बहुत अच्छी  तरह  महसूस  किया  है, लेकिन  मैं  खुद  को  हमेशा  भिख़ारी ही  समझता  रहा, इससे  ऊपर उठकर  मैंने  कभी  सोचा  ही  नहीं  था और  जब  आपसे  मेरी  दूसरी मुलाकात  हुई  तब  आपने  मुझे बताया  कि  मैं  एक  व्यापारी  बन चुका  हूँ। अब  मैं  समझ  चुका  था  कि मैं  वास्तव  में  एक  भिखारी  नहीं बल्कि  व्यापारी  बन  चुका  हूँ।

भारतीय मनीषियों ने संभवतः इसीलिए स्वयं को जानने पर सबसे अधिक जोर दिया और फिर कहा -

सोऽहं
शिवोहम !!

समझ की ही तो बात है...
भिखारी ने स्वयं को जब तक भिखारी समझा, वह भिखारी रहा | उसने स्वयं को व्यापारी मान लिया, व्यापारी बन गया |
जिस दिन हम समझ लेंगे कि मैं तो वही हूँ, मैं तो स्वयं शिव हूँ,

फिर जानने समझने को रह ही क्या जाएगा ?
शिवोभूत्वा शिवम् यजेत
शिव को भजो, शिव होकर !!

ज़रूरतमंदों की ज़रूरतें पुरी करने में आनंद ही आनंद है

लगभग दस बारह साल का एक बच्चा एक मकान का दरवाज़ा बजा रहा है। मकान मालकिन ने बाहर आकर पूंछा "क्या है?"
बच्चे ने कहा "आंटी! क्या मैं आपका गार्डन साफ कर दूं?" मकान मालकिन ने कहा "नहीं, हमें गार्डन साफ़ नहीं करवाना है।"
बच्चे ने हाथ जोड़ते हुए बहुत ही दर्द भरी आवाज़ में कहा "प्लीज आंटी! अपना गार्डन साफ़ करा लीजिये न, बहुत ही अच्छे से साफ करूंगा. "ना चाहते हुए भी मकान मालकिन ने कहा "अच्छा ठीक है, कितने पैसा लेगा?"
पैसा नहीं आंटी जी, खाना दे देना। "ओह !! अच्छे से काम करना।" "लगता है, बेचारा भूखा है। पहले खाना दे देती हूँ। मकान मालकिन मन ही मन में बुदबुदायी।" "ऐ लड़के! पहले खाना खा ले, फिर काम करना। "नहीं आंटी! पहले काम कर लूँ, फिर आप खाना दे देना।" "ठीक है कहकर मकान मालकिन अपने काम में लग गयी।"
एक घंटे बाद "आंटी जी देख लीजिए, सफाई अच्छे से हुई कि नहीं।" "अरे वाह! तूने तो बहुत बढ़िया सफाई की है, गमले भी क़रीने से जमा दिए। यहाँ बैठ, मैं खाना लाती हूँ। "जैसे ही मकान मालकिन ने उसे खाना दिया, वह जेब से प्लास्टिक की थैली निकाल कर उसमें खाना रखने लगा।"
मालकिन यह देखकर कहने लगी. "भूखे पेट काम किया है, अब खाना तो यहीं बैठकर खा ले। ज़रूरत होगी तो और दे दूंगी।" बच्चे ने जवाब दिया "नहीं आंटी, मेरी बीमार माँ घर पर है। सरकारी अस्पताल से दवा तो मिल गयी है, पर डाॅक्टर साहब ने कहा है दवा ख़ाली पेट नहीं खाना है।"

बच्चे की यह बात सुनकर मकान मालकिन रो पड़ी और अपने हाथों से बच्चे को उसकी दुसरी माँ बनकर भर पेट  खाना खिलाया. फिर उसकी माँ के लिए रोटियां बनाई और बच्चे के साथ उसके घर जाकर उसकी माँ को रोटियां दे आई और कह आई... बहन आप बहुत अमीर हो, जो दौलत आपने अपने बेटे को दी है, वह हम अपने बच्चो को भी नहीं दे पाते।

ज़रूरतमंदों की ज़रूरतें पुरी करने में आनंद ही आनंद है.

नर हो, न निराश करो मन को।

नर हो,
 न निराश करो मन को काम करो,
 कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
 कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को।
संभलो कि सुयोग न जाय चला
 कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
 पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
 नर हो, न निराश करो मन को। 

दुआ.

शख्स बड़ी तेज़ी से एयरपोर्ट मे घुसा , जहाज़ उड़ने के लिए तैयार था , उसे किसी कांफ्रेंस मे पहुंचना था जो खास उसी के लिए आयोजित की जा रही थी.....
वह अपनी सीट पर बैठा और जहाज़ उड़ गया...अभी कुछ दूर ही जहाज़ उड़ा था कि....कैप्टन ने ऐलान किया  , तूफानी बारिश और बिजली की वजह से जहाज़ का रेडियो सिस्टम ठीक से काम नही कर रहा....इसलिए हम क़रीबी एयरपोर्ट पर उतरने के लिए मजबूर हैं.।
जहाज़ उतरा वह बाहर निकल कर कैप्टन से शिकायत करने लगा कि.....उसका एक-एक मिनट क़ीमती है और होने वाली कांफ्रेस मे उसका पहुचना बहुत ज़रूरी है....पास खड़े दूसरे मुसाफिर ने उसे पहचान लिया....और बोला डॉक्टर पटनायक  आप जहां पहुंचना चाहते हैं.....टैक्सी द्वारा यहां से केवल तीन घंटे मे पहुंच सकते हैं.....उसने शुक्रिया अदा किया और टैक्सी लेकर निकल पड़ा...

लेकिन ये क्या आंधी , तूफान , बिजली , बारिश ने गाड़ी का चलना मुश्किल कर दिया , फिर भी ड्राइवर चलता रहा...
अचानक ड्राइवर को एह़सास हुआ कि वह रास्ता भटक चुका है...
ना उम्मीदी के उतार चढ़ाव के बीच उसे एक छोटा सा घर दिखा....इस तूफान मे वही ग़नीमत समझ कर गाड़ी से नीचे उतरा और दरवाज़ा खटखटाया....
आवाज़ आई....जो कोई भी है अंदर आ जाए..दरवाज़ा खुला है...

अंदर एक बुढ़िया आसन बिछाए भगवद् गीता पढ़ रही थी...उसने कहा ! मांजी अगर इजाज़त हो तो आपका फोन इस्तेमाल कर लूं...

बुढ़िया मुस्कुराई और बोली.....बेटा कौन सा फोन ?? यहां ना बिजली है ना फोन..
लेकिन तुम बैठो..सामने जल है , पी लो....थकान दूर हो जायेगी..और खाने के लिए भी कुछ ना कुछ फल मिल जायेगा.....खा लो ! ताकि आगे सफर के लिए कुछ शक्ति आ जाये...

डाक्टर ने शुक्रिया अदा किया और जल पीने लगा....बुढ़िया अपने पाठ मे खोई थी कि उसकेे पास उसकी नज़र पड़ी....एक बच्चा कंबल मे लपेटा पड़ा था जिसे बुढ़िया थोड़ी थोड़ी देर मे हिला देती थी...
बुढ़िया फारिग़ हुई तो उसने कहा....मांजी ! आपके स्वभाव और एह़सान ने मुझ पर जादू कर दिया है....आप मेरे लिए भी दुआ कर दीजिए....यह मौसम साफ हो जाये मुझे उम्मीद है आपकी दुआऐं ज़रूर क़बूल होती होंगी...

बुढ़िया बोली....नही बेटा ऐसी कोई बात नही...तुम मेरे अतिथी हो और अतिथी की सेवा ईश्वर का आदेश है....मैने तुम्हारे लिए भी दुआ की है.... परमात्मा का शुक्र है....उसने मेरी हर दुआ सुनी है.. बस एक दुआ और मै उससे माँग रही हूँ शायद  जब वह चाहेगा उसे भी क़बूल कर लेगा...

कौन सी दुआ..?? डाक्टर बोला...

बुढ़िया बोली...ये जो 2 साल का बच्चा तुम्हारे सामने अधमरा
पड़ा है , मेरा पोता है , ना इसकी मां ज़िंदा है ना ही बाप , इस बुढ़ापे मे इसकी ज़िम्मेदारी मुझ पर है , डाक्टर कहते हैं...इसे कोई खतरनाक रोग है जिसका वो इलाज नही कर सकते , कहते हैं एक ही नामवर डाक्टर है , क्या नाम बताया था उसका !
हां "डॉ पटनायक " ....वह इसका ऑप्रेशन कर सकता है , लेकिन मैं बुढ़िया कहां उस डॉ तक पहुंच सकती हूं ? लेकर जाऊं भी तो पता नही वह देखने पर राज़ी भी हो या नही ? बस अब बंसीवाले से ये ही माँग रही थी कि वह मेरी मुश्किल आसान कर दे..!!

डाक्टर भर्राई हुई आवाज़ मे बोला !
 माई...आपकी दुआ ने हवाई जहाज़ को नीचे उतार लिया , आसमान पर बिजलियां कौदवां दीं , मुझे रस्ता भुलवा दिया , ताकि मैं यहां तक खींचा चला आऊं ,हे भगवान! मुझे यकीन ही नही हो रहा....कि भगवान  एक दुआ क़बूल करके अपने भक्तौं के लिए इस तरह भी मदद कर सकता है.....!!!!

संदेह l

संदेह

यूनान में एक पुरानी कहानी है। यूनान में सोफिस्ट संप्रदाय हुआ। यह सोफिस्ट संप्रदाय शुद्ध तर्कवादियों का संप्रदाय था। इनकी श्रद्धा तर्क में थी। ये कहते थे कि तर्क सब कुछ है। और ये यह भी कहते थे कि सत्य जैसी कोई चीज नहीं है। सत्य तो तुम्हारी मान्यता है। अपनी मान्यता को सुदृढ़ करने के लिए तुम तर्क का जाल खड़ा कर लो। तर्क की बैसाखियां लगा दो तो सत्य खड़ा हो जाता है। हालांकि सत्य जैसी कोई चीज नहीं। सत्य है ही नहीं, सब तर्क ही तर्क है। इसलिए हर सत्य के लिए, जिसको तुम सत्य मानना चाहते हो, तर्क जुटाए जा सकते हैं।

एक बहुत बड़ा सोफिस्ट अपने शिष्यों को. . . .उसे इतना भरोसा था अपने तर्क पर, आधी फीस लेता था शिक्षण देते समय और कहता था आधी तब लूंगा जब तुम अपना पहला विवाद जीतोगे। और स्वभावतः उसके सारे शिष्य विवाद जीतते थे। इसलिए आधी फीस पीछे लेता था। मगर एक महाकंजूस भरती हुआ उसके स्कूल में। उसने आधी फीस दी, तर्क सीखा, फिर किसी से विवाद किया ही नहीं।

महीने बीते, गुरु बेचैन। वर्ष बीतने लगे, गुरु ने कई बार पूछा कि भई, विवाद किसी से नहीं किया?

उसने कहा : मैं विवाद कभी करूंगा ही नहीं। वह आधी फीस की झंझट कौन ले! तुम मुझसे आधी फीस न ले सकोगे आखिर मैं भी तुम्हारा ही शिष्य हूं।

लेकिन गुरु ऐसे तो नहीं छोड़ दे सकता था। गुरु ने अदालत में मुकदमा किया कि इसने मुझे आधी फीस नहीं चुकाई है।

गुरु का हिसाब साफ था। गुरु का हिसाब यह था कि अब तो इसे अदालत में विवाद करना ही पड़ेगा मुझसे, अगर मैं विवाद जीता तो आधी फीस वहीं रखवा लूंगा क्योंकि अदालत कहेगी कि आधी फीस दो। और अगर मैं विवाद हारा तो अदालत के बाहर कहूंगा कि बच्चू कहां जा रहे हो, विवाद तुम जीत गए, आधी फीस! चित भी मेरी पट भी मेरी।

मगर शिष्य भी तो आखिर उसी का शिष्य था। उसने कहा : कोई फिक्र नहीं। अगर अदालत में हारा तो मुझे पता है कि वह बाहर आकर फीस मांगेगा कि तुम जीत गए। तो मैं अदालत से निवेदन करूंगा कि मैं अदालत में जीता हूं इसलिए अब फीस कैसे चुका सकता हूं? क्योंकि यह तो अदालत का अपमान होगा। और अगर अदालत में मैं हार गया तब तो कोई सवाल ही नहीं। बाहर आकर कहूंगा अदालत में भी हार गया, पहला विवाद भी हार गया, अब कैसी फीस? जब गुरु को यह पता चला कि. . . .तो उसने मुकदमा खींच लिया क्योंकि यह तो . . . सेर को सवा सेर मिल गया।

तर्क का कोई अपना पक्ष नहीं है। तर्क इस अर्थ में निष्पक्ष है। वही तर्क ईश्वर को सिद्ध करता है, वही तर्क ईश्वर को असिद्ध करता है। और संदेह तर्क में जीता है।

 लेकिन एक दिन अगर तुम संदेह में जीते ही रहे, जीते ही रहे, तो तुम्हें यह समझ में आ जाएगा कि तुम तर्क के रेगिस्तान में भटक गए हो, जहां एक भी मरूद्यान नहीं न वृक्ष की छाया है कोई, न दूब की हरियाली है कोई, न पानी के झरने हैं, न पानी के झरनों का संगीत है तुम एक सूखे मरुस्थल में भटक गए हो। तर्क बिल्कुल सूखा मरुस्थल है। वहां घास भी नहीं उगती। तर्क में कोई चीज नहीं उगती। तर्क में तो उगी हुई चीजें हों तो भी मर जाती हैं। तर्क तो जहर है।

मगर यह अनुभव कैसे आएगा? यह तुम संदेह में चलोगे तो ही अनुभव आएगा। और एक दिन जब तुम संदेह में चलते चलते संदेह से थक जाते हो, संदेह से ऊब जाते हो, संदेह की व्यर्थता देख लेते हो, संदेह की निस्सारता अनुभव कर लेते हो तब तुम्हारे मन में एक नया प्रश्न उठता है कि मैं अनुभव करके देखूं। विचार करके बहुत देखा, कुछ पाया नहीं, हाथ कुछ लगा नहीं, खाली का खाली हूं, अनुभव करके देखूं, जीवन निकला जा रहा है।

ओशो

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