“रोम का लोहार”

“रोम का लोहार”
रोम में एक बहुत प्रसिद्ध लोहार हुआ। उसकी प्रसिद्धि सारी दुनिया में थी, क्योंकि वो जो भी बनाता था, वो चीज़ बेजोड़ होती थी। उस लोहार की दुकान पर बनी तलवार का कोई सानी न था। और उस लोहार की दुकान पर बने सामानों का सारे जगत में आदर था। दूर-दूर के बज़ारों में उसकी चीज़ें बिकती थीं, उसका नाम बिकता था।
फिर रोम पर हमला हुआ। और रोम में जितने प्रतिष्‍ठित लोग थे, पकड़ लिए गए। रोम हार गया। वो लोहार भी पकड़ लिया गया। वो तो काफ़ी ख़्यातिलब्ध आदमी था। उसके बड़े कारख़ाने थे। और उसके पास बड़ी धन–सम्पत्‍ति थी, बड़ी प्रतिष्‍ठा थी। वो भी पकड़ लिया गया।
तीस, रोम के प्रतिष्‍ठित, जो सर्वशक्‍तिशाली आदमी थे, उनको पकड़ के दुश्मनों ने ज़ंजीरों और बेड़ियों में बाँध के पहाड़ों में फेंक दिया, मरने के लिए।
जो उनतीस थे, वो तो रो रहे थे, लेकिन वो लोहार शान्त था। आख़िर उन उनतीसों ने पूछा कि, “तुम शान्त हो, हमें फेंका जा रहा है, जंगली जानवरों को खाने के लिए!”
उसने कहा, “फ़िकिर मत करो, मैं हूँ, मैं लोहार हूँ। ज़िन्दगी भर मैंने बेडियाँ और हथकड़ियाँ बनाई हैं, मैं खोलना भी जानता हूँ। तुम घबड़ाओ मत। एक दफ़ा इनको फेंक के चले जाने दो, मैं ख़ुद भी छूट जाऊँगा, तुम्हें भी छोड़ लूँगा। तुम डरो मत।”
तो लोगों की हिम्मत आ गई, आशा आ गई। बात तो सच थी, उससे बड़ा कोई कारीगर न था। ज़रूर, ज़िन्दगी भर लोहे के साथ ही खेल खेला है, तो ज़ंजीरें न खोल सकेगा! खोल लेगा। ये बात भरोसे की थी।
फिर दुश्मन उन्हें फेंक कर गड्ढ़ों में, चले गए। वे सब घिसट के किसी तरह उस लोहार के पास पहुँचे। पर वो लोहार रो रहा था। उन्होंने पूछा कि, “मामला क्या है? तुम, और रो रहे हो? और हमने तो तुम पे भरोसा किया था। और हम तो तुम्हारी आशा से जीते रहे अब तक। हम तो मर ही गए होते। तुम क्यों रो रहे हो? हुआ क्या? अब तक तो तुम प्रसन्न थे!”
उसने कहा कि, “मैं रो रहा हूँ इसलिए कि मैंने जब ग़ौर से अपनी ज़ंजीरें देखीं तो उन पे मेरे हस्ताक्षर हैं, वो मेरी ही बनाई हुई हैं। मेरी बनाई ज़ंजीरें तो टूट ही नहीं सकतीं। ये किसी और की बनाई होतीं तो मैंने तोड़ दी होतीं। लेकिन यही तो मेरी कुशलता है कि मेरी बनाई ज़ंजीर टूट ही नहीं सकती। असम्भव। ये नहीं हो सकता। मरना ही होगा।”
उस लोहार की कहानी हर संसारी आदमी की कहानी है। आख़िर में तुम एक दिन तुम्हारी ही ज़ंजीरों में फँस के गए। तुमने बड़ी कुशलता से उनको ढाला था। तुम्हारे हस्ताक्षर उन पर हैं। तुम भली-भाँति पहचान लोगे कि ये अपने ही हाथ का जाल है। इस पूरे सिद्धान्त का नाम कर्म है। तुम ही बनाते हो। तुम्हीं ये सीख़चे ढालते हो। तुम्हीं ये पिँजड़े बनाते हो। फिर कब तुम इसमें बन्द हो जाते हो, कब द्वार गिर जाता है, कब ताले पड़ जाते हैं, तुम्हें समझ में नहीं आता। ताले भी तुम्हारे बनाए हुए हैं। शायद तुमने किसी और कारण से दरवाज़ा लगा लिया था... सुरक्षा के लिए। लेकिन अब खुलता नहीं।

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