ब्राह्मण बोला-हे वनराज ! तुम विकराल प्राणी हो,यदि मैंने तुम्हें निकाला तो तुम मुझे ही खा जाओगे। बाघ ने कहा-महाराज ! मैं वचन देता हूँ आपको नहीं खाऊँगा। ब्राह्मण को बाघ पर विश्वास हो गया और उसने बाघ की मदद करके उसे बाहर निकाल दिया।
बाघ बोला-महाराज ! आप कहाँ जा रहे हो ?
ब्राह्मण बोला मैं पास के गाँव में आज जमींदार के यहाँ ब्रह्मभोज था, वहाँ से भोजन करके आ रहा हूँ।
बाघ कहने लगा हे ब्राह्मण ! आप अच्छा भोजन खाकर मोटे हो गये हो अब मैं आपको खाऊँगा।
ब्राह्मण चौंका,भागना चाहा,फिर कुछ सोचकर बोला-तुमने मुझे वचन दिया है फिर वचन तोड़कर अधर्म क्यों कर रहे हो ?
बाध ने कहा धर्म-अधर्म मैं नहीं जानता तू मनुष्य है और मेरा भोजन है, चल अब मरने के लिये तैयार हो जा..
ब्राह्मण ने कहा अच्छा ठीक है, लेकिन थोड़ा समय दें I पहले हम 3 लोगों से निर्णय करा लेते हैं।
बाघ बोला यहाँ तीन मनुष्य नहीं मिल सकते ,तब तक क्या मैं भूखा रहूँ?
ब्राह्मण ने कहा वनराज ! बहुत देर नहीं होगी, आप तालाब के किनारे से थोड़ा आगे तो बढ़ें, बाघ ने बात मान ली..
जब कोई नजर न आया तो उन्होंने एक वृक्ष को पूरी बात सुनाकर निर्णय पूछा, वृक्ष बोला-हाँ बाघ का कहना उचित है, इस संसार में भलाई नहीं है देखो मैं अपने फल देता हूँ, धूप सहकर छाया देता हूँ, ठंडी हवा देता हूँ, लेकिन मानव हमें ही अपने स्वार्थ के लिये काट देते हैं, उपकार के बदले अपकार करते हैं।तूने व्याघ्र की जान बचाई, अब ये तुझे खाऐगा। बाघ बोला देखो मेरा कार्य अन्याय युक्त नहीं है।
ब्राह्मण बोला-रुको ,दूसरे से पूछ लें।
थोड़ी दूरी पर एक मटका टूटा पड़ा मिला I
ब्राह्मण ने सारी बात बताकर उससे न्याय करने को कहा। मटका बोला-बाघ का आचरण उचित ही है। जो उपकार करके अपकार की आश नहीं रखता वो मूर्ख ही है, संसार का नियम स्वार्थ का है।
मैं मिट्टी था, गीला हुआ, पीसा-पीटा गया,कुम्हार के हाथ से चोट खाई, आँच में तपाया गया, सबको शीतल जल दिया, और आज देखो मेरी कैसी दुर्दशा कर दी है।
बाघ प्रसन्न होकर बोला ब्रह्मदेव ! न्याय सुन लिया,अब निर्णयानुसार मरने को तैयार हो जाओ।
ब्राह्मण बोला-बस एक और से पूछ लें, बाघ अधीर हो रहा था फिर भी कहा ठीक है चलो..
थोड़ा चलने पर उनको एक लोमड़ा नजर आया जो बाघ को देखकर भागने लगा, ब्राह्मण ने कहा रुको भाई ! डरो मत एक निर्णय करते जाओ।
लोमड़ा बोला-महाराज ! दूर से ही सुना दो, मैं न्याय कर दूँगा।
तब ब्राह्मण ने पूरी बात सुनाकर कहा कि मैने इसे बचाया ये मुझे खाना चाहता है, अब न्याय करो,लोमड़ा कुछ सोचकर बोला-आपकी बातें मैं कुछ समझा नहीं, आप आगे आगे सरोवर पर चलो वहीं जाकर निर्णय करेंगे।
वहाँ जाकर बाघ कीचड़ में गया और बोला मैं यहाँ फंसा हुआ था, लोमडे ने पूछा क्या ये सत्य है? ब्राह्मण ने कहा-नहीं इससे आगे था, तब बाघ और आगे जाकर उसी दलदल में फिर फँस गया, उसको वहीं पर फंसा देखकर ब्राह्मण ने कहाँ हाँ-हाँ सत्य है ये यही फंसा हुआ था।
उसे कीचड़ में फँसा देखकर लोमड़ा बोला-भोलेनाथ! अब भाग जाईये, मैं भी भाग जाता हूँ इस स्वार्थी को यमराज के लोक में जाने दो, और वो दोनो वहाँ से भाग गये। बाघ को बड़ा क्रोध आया, लेकिन अब हो भी क्या सकता था? अंत में वह वहीं कीचड़ में फंसकर मर गया। इस कहानी का सार है कि बाघ ने दुःख निवृत्ति की ईच्छा की।संयोगवश ब्राह्मण को दया आई और उसने उसे बाहर निकाल दिया। फिर जब उसने ब्राह्मण को ही खाने की इच्छा की तो कीचड़ में फंसकर मर गया। सोचने की बात यह है कि सुख की इच्छा करने से भी दुःख मिल जाता है, यदि बाघ ब्राह्मण को खाकर सुख की इच्छा न करता तो कीचड़ में फँसकर न मरता। ये संसार विचित्र है, भले का बुरा और बुरे का भला पता नहीं कब कैसे हो जाऐ..सब हरि की इच्छा पर निर्भर है, लेकिन ये संसार स्वार्थों के कारण ही ज्यादा दुःखी है..
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